Saturday, May 22, 2010
कम लेकिन सारगर्भित लेखन को प्राथमिकता मिले
पुस्तकचर्चा हेतु आयोजित एक संगोष्ठी में इंदौर के साहित्यकार श्री क्रष्णकान्त निलोसे ,डॉ जवाहर चौधरी , डॉ राम किसनसोमानी ,दिनेश अवस्थी ,चैतन्य त्रिवेदी , सदाशिव कौतुक ,प्रदीप कान्त , प्रदीप मिश्र , श्रीमती अर्चना शर्मा उपस्थित हुए . पुस्तक चर्चा के बहाने हिन्दी साहित्य के अनेक पक्षों पर साहित्यकारों ने बात की .छपरही किताबों पर एक चिंता प्रकट हुई की आज अनेक ऐसे लेखक सक्रिय हैं जिनके पास विचार नहीं हैं केवल पैसे के बल पर अपना कचरा लेखन छपवा लेते हैं . सच में यह चिंता सही भी है , जब प्रदूषण निरंतर बढ़ रहा है और पेपर के लिए पेड़ काटे जा रहे है ऐसे मैं एक संवेदनशील लेखक की जिम्मेदारी बनती है वह अपनी किताब छपवाने से पूर्व यह विचार जरूर करे की उसका लेखन किसी वर्क्ष का जीवन तो नहीं ले रहा है . उसे एस बात पर भी विचार करना चाहिए की उसका लिखा हुआ बाचने वाला कौन है . किताबें लिखने से ही कोई लेखक नहीं बनजाता जब तक की उसके लेखन में समाज को देने का सामर्थ न हो . कवी प्रदीप मिश्र ने विचार रखा की हिदी के आलोचकों को ऐसे लेखकों को हतोत्साहित करना चाहिए जो केवल साहित्य की दुनिया में ऐन-केन प्रकारेण अपनी उपस्थिती बनाए रखना चाहिते हैं . साहित्य में फैले प्रदूष्ण से पढने वाले भ्रमित होते हैं . इसे आलोचक नाम के दरोगा को देखना चाहिए . आज के आलोचक निजी स्वार्थों के वसीभूत होकर अपने कर्म के साथ न्याय नहीं करते ,इसका परिणाम यह हुआ है की साहित्य में भर्ती की कितावें ज्यादा छपने लगी हैं . इसे रोकने का एक मात्र उपाय साहित्य के आंतरिक अनुशासन को ईमानदार बनाना है . इस अनुशासन के विभाग प्रमुख को आलोचक कहते हैं . क्या इस स्थिती पर विचार किया जाना आवश्यक है ? आप क्या सोचते हैं ?
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
राकेश भाई ,
ReplyDeleteआएदिन इस बात की ओर लोगों का ध्यान जाता है कि बहुत सारे लेखक
विचारहीनता की स्थिति में लगातार शब्दों का
अपव्यय करते रहते हैं । प्रदीप मिश्र की यह चिंता वाजिब लगती है कि
स्तरहीन पुस्तकों का प्रकाशन पेड़ों के शव पर होता है ।
शब्दों का तो है ही, कागज का भी अपव्यय हुआ और परोक्ष रुप से
पर्यावरण का भी नुकसान हुआ ।
किन्तु मित्रों , किसान जब खेत बोता है तो फसल की इच्छा से ही ना ? खरपतवार
का निर्णय तो उगने के बाद ही होगा ।
इस बीच फसल के साथ खरपतवार भी सिंच जाती है , लेकिन बाद में उसे उखाड़ा जाता है ।
मेरा निवेदन है कि उगने दें , हां ... बाद में आलोचक उस खरपतवार को नष्ट करने में अपना योगदान दें ।
यदि हम कमजोर लिखने वालों को अवसर ही नहीं देंगे तो
हमें अच्छा लिखने वाले मिलेंगे कैसे ।
मैदान में उतरे बगैर शूरवीरों का चयन कैसे होगा ?
कुछ जिम्मेदारी श्रेष्ठ लिखने वालों की भी है कि वे
अच्छा लिखने का संस्कार दें । आज जबकि लोग साहित्य से दूर जा रहे हैं , अच्छे साहित्य से भी , तब हमें कमजोर शब्दसाधना के लिये भी गुंजाइश बनाए रखना होगी । समय उसे अपने आप मूल्यांकित कर लेगा ।