Saturday, May 29, 2010

ऋषि तुल्य आलोचक रामविलास शर्मा का स्मरण

२९ मई ,सन2000 को डॉ रामविलास शर्मा ने यह संसार छोड़ा था . उनके साथ हिन्दी साहित्य का वह युग समाप्त हुआ था जो आचार्य महावीर प्रसाद दूवेदी से संस्कार लेकर खड़ा हुआ था .रामविलास जी ने ''आचार्य महावीर प्रसाद दूवेदी और  हिन्दी नव जागरण '', भार्तेदु युग ,प्रेमचंद और उनका युग , निराला की साहित्य साधना  जैसी  पुस्तकें लिख कर अपने चिंतन श्रोतों का परिचय दिया . हिन्दी को परिमार्जित करने और हिन्दी साहित्य  को  सही दिशा पर ले चलने का काम उन्होंने किया .साहित्य को किस्सा कहानियों , कविता उपन्यास ,आदि की जमीन से दूर लेजाकर आर्थिक परिस्थितियों के साथ जोड़ कर देखने का काम किया इस द्रष्टि से वे हिन्दी के पहले आलोचक  हैं जो साहित्य को बिलकुल अलग निगाह से देखते हैं ,मूल में  वे आचर्य राम चन्द्र शुक्ल की स्थापनाओं से सहमत दिखाई देते हैं उनकी यह सोच हिन्दी के अनेक नामवर साहित्यकारों को नागवार गुजरती रही .  अपनी स्थापनयों को लेकर वे विरोधियों से हमेशा घिरे रहे .लेकिन विचलित कभी नहीं हुए  . वे मार्क्स वादी थे लेकिन उनका मार्क्सवाद विल्कुल भिन्न था . भारतीय संदर्भों में उनकी मार्क्स वादी द्रष्टि ही   ठीक है . जब उन्होंने ''पश्चिम  एशिया और ऋग्वेद '' पुस्तक लिखी और यह कहा  ''jo  लोग यह मानते हैं कि आर्य बाहर से आए हैं उन्हें यह बताना चाहिए कि सिन्धु नदी का नाम यहां उनके आने से पहले ही प्रचलित था या उनके आने के बाद प्रचलित हुआ यदि उनके आने से पहले प्रचलित था इसमें सघोष महाप्राण ध्वनि ष्धष् कैसे है। भारत में आर्यों को छोड़कर जितने भाषा परिवार हैंए उनमें स घोष महाप्राण ध्वनियों का अभाव है। ईरान में वे जिसे हिन्दु कहते थेए उसे भारत में आकर सिन्धु कहने लगेए यह निराधार कल्पना है। सिन्धु के अलावा उत्तर भारत की जितनी नदियां हंैए उनके नामों पर कहीं भी ईरानी या द्रविड़ भाषाओं के ध्वनि तंत्र का प्रभाव नहीं दिखाई देता। एक नदी है सुवास्त। यह नाम ऋग्वेद में है। नदी का यह नाम इस कारण रखा गया था कि उसके किनारे बहुत अच्छे घर बने हुए थे। मानना चाहिए कि घर पहले बनाए गए होंगे उसके बाद नदी का नाम रखा गया होगा। सिन्धु सुवास्तु ही नहींए सरयू से लेकर सरस्वती तक अधिकांष नदियों के नामों पर न तो भरतों की ध्वनि प्रकृति छाप है और न मगधों की ध्वनि प्रकृति की।''  पहलीवार किसी विचारक ने यह कहा   था की आर्य भारत के मूल निवासी थे . अपनी स्थापनाओं के लिए शर्मा जी आकाश -पातळ एक कर दिए . मार्क्श्वादियों को यह रुचिकर नहीं लगा तो जो व्यक्ति कल तक ''केवल  एक जलती मशाल'' था ,वह इतिहास का शव साधक घोषित कर दिया गया . मजे की बात तो यह  है की उन्होंने जो स्थापनाएं दीन उनका विरोध तो लोग करते हैं परन्तु उनका शोध परक  खंडन कोइ नहीं करता . लोग कहते रहे की राम विलास शर्मा इतिहासकार नहीं हैं फिर क्यों उनकी स्थापनाओं  को माना जाए ? यह विशुद्ध एक कुतर्क था . सही बात तो यह थी की डॉ शर्मा की स्थापनाओं का खंडन करने के लिए जितने अध्ययन की जरूरत है उतना सामर्थ किसी के पास था नहीं . जब राम विलास जी ने मुक्तिबोध की रचना प्रक्रिया की आलोचना की और तर्क देकर पूछा की मुक्तिबोध के अंतर्विरोधों का उत्तर  दो , उनका उत्तर आज तक  दिया गया . पिछले दिनों एक शाक्षात्कार में यह प्रश्न मैंने
आलोचक  क्रष्णदत्त  पालीवाल से पूछा था तो उन्होंने मुक्तिबोध और अगेय पर प्रकाशित होने वाली अपनी पुस्तक के कुछ अंश दिखाए थे . बात होती कुछ और है और फैलाई  कुछ और जाती है . कम से कम हिन्दी साहित्य में यह काम बड़े पैमाने पर हुआ है . इसके निहितार्थ बहुत हैं उनपर चर्चा यहाँ संभव नहीं है पर संकेत में इतना तो कहा ही जा सकता है की आखिर मुक्तिबोध की कवितायों की समझ हिन्दी के कितने लोगों को हो पाई . मुक्तोबोध स्वंयं अपने अंतर्विरोधों की बात स्वीकार  करते है , ज़रा मुक्तिबोध रचनावाली को देखिये तो सही . पूरी जांच पड़ताल किये विना डॉ रामविलास शर्मा को खारिज करना या दोषारोपित करना ठीक नहीं है . भाषा , इतिहास , समाज शास्त्र , अर्थ शास्त्र के वे पंडित थे वास्तु और नरत्व शाश्त्र के सहारे वे अपनी स्थापनाओं को रखते रहे , ''भारतीय संस्क्रती और हिन्दी प्रदेश , ''गांधी ,आम्वेद्कर और भारतीय इतिहास की समस्याएं '',''मार्क्स वाद और प्रगतशील साहित्य ''जैसी सौ पुस्तकों के वे महान लेखक हैं  . उन्हें याद करते हुए मनश्रधा  से भरता है . हम हिंदी  के प्रेमियों को यह गर्व है डॉ राम विलास शर्मा जैसा चितकहमारे पास है . आज उनके पुन्य  स्मरण दिन पर मैं अपने मन की गहराई से इस युग पुरुष की स्मरती को प्रणाम करता हूँ ,

1 comment:

  1. मार्क्श्वादियों को यह रुचिकर नहीं लगा तो जो व्यक्ति कल तक ''केवल एक जलती मशाल'' था ,वह इतिहास का शव साधक घोषित कर दिया गया .

    बहुत सार्थक जानकारी. डॉ. राम विलास शर्मा जी को नमन.

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